औ३म् अथवा ओम्
- Aryavart Regenerator
- Jul 8, 2020
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|| ओ३म् ||
वेदादि सच्छास्त्रप्रसिद्ध, ऋषि - मुनि - विद्वानों के अनुभव से सिद्ध यह " ओ३म् " परमात्मा का सर्वोत्तम और पवित्र नाम् है । उपनिषदों में बड़ी सुन्दर रीति से इसका व्याख्यान है । युक्तियुक्त बात का ग्रहण और अयुक्त के परित्याग का आदेश करने वाले दर्शनग्रंथों में इसके द्वारा उपासना का विधान है । और इसके ही स्मरण की आज्ञा वेदों में विद्यमान है । " ओ३म् " पदवाच्य परमात्मा का साक्षात्कार मनुष्यों के कल्याण का निदान है , विचार करने से सर्वत्र इसकी महिमा का गान है , यह सिद्ध हो रहा है ।।
असूया से आरोपित पौराणिक दोषराशि आर्य समाज के निर्दोष सिद्धांतों को दूषित नहीं कर सकती है , क्या कभी शैवाल् - विशाल - जाल , गंगा के सन्तत प्रवाह को रोक सकता है ? नहीं कभी नहीं ।।
यदा यदा आर्य समाज के सिद्धांत प्रसाद पर कोई धूर्त अपनी बुरी चेष्टा करता है तदा तदा आर्य समाज के प्रति मेरे ये विचार और भी दृढ़ होते जाते हैं ।।
आज मेरी द्रढ़ता का निमित्त ( https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1091789917529473&set=a.131738880201253.16999.100000954264554&type=3&theater ) इस लिंक में प्रषित ये लेख बना |
लेखकर्ता ने अशेषमति - सम्पन्न महर्षि दयानन्द द्वारा वेदादि आर्ष ग्रंथो से पोषित आर्य समाज के सिद्धांतों के खण्डन की प्रतिज्ञा कर महोदय ने हेत्वाभास - छल - प्रबल - युक्तियुक्त इस लेख का प्रणयन किया है | लेख में अष्टाध्यायी के कुछ सूत्र दे लेखक ने धूर्तचेष्टावश लेख को कठिन दर्शाने और अष्टाध्यायी ज्ञान से अनभिज्ञ पाठकों को मूर्ख बनाने का कुप्रयास किया है जिसका मैं वैदिक तीक्ष्ण – तर्कों से सप्रमाण छेदन कर रहा हूँ |
लेखक महोदय की प्रतिज्ञा है की || ओ३म् || प्लुत ओंकार का विधान केवल और केवल वेद पाठ के आरम्भ में ही है सर्वत्र ओ३म् बोलना , लिखना आर्य समाजियों का कपोलकल्पित वेदविरुद्ध पाखंड मात्र है |
समीक्षा – लेखक महोदय अगर आपने अपने सिद्धांत के प्रतिपादन में "ओमभ्यादाने" सूत्र दिया था तो उसके नीचे एक सूत्र छोड़ “प्रणवष्टेः” सूत्र आपको क्यूँ न दिखा – इस सूत्र के अनुसार तो मंत्र के “टि” भाग को || ओ३म || प्लुत ओंकार हो जाता है – “अचोऽन्त्यादि टि” से मन्त्र से अंतिम अच् अथवा अच् समुदाय की टि संज्ञा हो “प्रणवष्टेः” से प्लुत ओंकार हो जाता है –
आगे पीछे ओंकार बढ़ने से ऋचा इस प्रकार पढ़ी जाएगी – “ओ३म अग्नि ----------- होतरं रत्नधातो३म” जिसमें महाभाष्य के टीकाकारों की भी सम्मति है जिसका चित्र नीचे दाल दिया जायेगा
अतः आपके इस कथन का निराकरण इस सूत्र से स्वयं हो जाता है जिसमें आपने कहा है की प्लुत ओंकार केवल और केवल वेदारम्भ में ही पढ़ा जायेगा |
आगे चलते हैं -
आपके लेख का आधार आष्टाध्यायी का "ओमभ्यादाने" सूत्र रहा – अगर इसी सूत्र के आधार पर आपने इतना कूड़ा लिख डाला है तो मुझे बड़े शोक से कहना पड़ेगा की आपका व्याकरणवैदुष्य सर्वाथा चिन्तनीय है इस सूत्र में “अभ्यादाने” सप्तमी का एक वचन होने से केवल समूह का ही निर्देश नहीं कर रहा है बल्कि प्रत्येक मंत्र के आरंभ में ओ३म् के उच्चारण का निर्देश कर रहा है |
महोदय आपने अ + उ + म् को गुण करके अव्युत्पन्न ओम् तो बना दिया पर आपने धातु से ओ३म् कैसे बनता है यह नहीं बताया और न ही अपने ॐ की व्याकरण से सिद्धि ही की –
ओ३म और ओम् को विकल्प के विषय हैं – जो जैसा चाहे लिखे व उच्चारण करे इसमें त्रुटी नहीं पर ये ॐ का विधान तो वेदों ने नहीं किया है – इसका आधार क्या है ?
और जो आपकी ये प्रतिज्ञा है की “वेद में कहीं भी ओ३म् का प्रयोग नहीं है, केवल ओम् का ही प्रयोग है” इसका निराकरण मैं महीधर , उव्वट के भाष्य से "ओ३म् खं ब्रह्म" मंत्र का चित्र लगा कर रहा हूँ
आपके लिए छान्दोग्योपनिषद का प्रपाठक एक खंड १२ श्लोक ५ भी दर्शनीय है – चाहे तो श्लोक शंकर भाष्य से ही देख लेना –
अंत में यही कहूँगा की इस विषय पर अब भी कोई शंका अवशिष्ट रह गई हो या वाद करने की इच्छा हो या पाठकों को भ्रमित करने की खुजली मच रही हो तो उसको मिटाने के लिए मुझे सर्वदा सन्नद्ध जानिये ||
ओ३म् शम्
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