स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा महाभाष्य का विशेष विनियोग
- Aryavart Regenerator
- Nov 28, 2020
- 9 min read
लेखक
-युधिष्ठिर मीमांसक
प्रस्तुति- निशांत आर्य
महाभाष्य केवल संस्कृत-व्याकरण का ही ग्रन्थ नहीं है, अपितु यह अनेक विद्याओं का भण्डार हैं । महावैयाकरण भर्तृहरि ने लिखा है:-
कृतेऽथ पतञ्जलिना गुरुणा तीर्थदर्शिना ।
सर्वेषां न्यायबीजांनां महाभाष्ये निबन्धने ॥४७॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जिस सूक्ष्म दृष्टि से महाभाष्य को आत्मसात् करके उसके वचनों को अपने ग्रन्थों में उद्धृत किया है, उस प्रकार किसी प्राचीन
लेखक ने महाभाष्य का उपयोग नहीं किया। बड़े-बड़े विद्वान् महाभाष्य को केवल अष्टाध्यायी की व्याख्या के रूप में व्याकरणमात्र का ग्रन्थ मानते हैं, परन्तु स्वामी
दयानन्द सरस्वती पाणिनीय अष्टाध्यायी की व्याख्या के साथ महाभाष्य को अनेक विद्याओं का पाकर ग्रन्थ समझते थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वेदार्थ एवं लोकव्यवहार को निदर्शित करने में महाभाष्य का किस प्रकार उपयोग किया है, इसका संक्षिप्त निदर्शन कराना हम आवश्यक समझते हैं। वेदार्थ में महाभाष्य के वचनों का उपयोग स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के 'व्याकरण नियमविषय' में अष्टाध्यायी के सूत्रों के साथ महाभाष्य के अनेक वचन उद्धृत किये हैं। उनमें से निदर्शनार्थ कुछ वचन उद्धृत
करते हैं। यथा-
(१) अर्थगत्यर्थः शब्दप्रयोगः,अर्थ प्रत्याययिष्यामीति शब्दः प्रयुज्यते।।१।१।४४।।
अर्थात्-अर्थ का बोध कराने के लिये शब्द का प्रयोग किया जाता है । अर्थ का बोध कराऊंगा इस विचार से शब्द का प्रयोग किया जाता है। इस वचन की
वैशेषिक दर्शन के 'बुद्धिपूर्वा वाक्यकृति दे' (६१) अर्थात् –वेद की रचना बुद्धि- पूर्वक की गई है, के साथ करें।
(२) प्रातिपदिकनिशाश्चार्थतन्त्रा भवन्ति । न काञ्चित् प्राधान्येन विभक्तिमाश्रयन्ति । तत्र यां या विभक्तिमाश्रयितु बुद्धिरुपजायते सा सा प्रायितव्या। १११॥५५॥
अर्थात् प्रातिपदिक का निर्देश अर्थ की प्रधानता को लेकर किया जाता है, वे किसी विभक्ति का प्रधानरूप से प्राश्रय नहीं करते । वहाँ (व्यवहार में) जिस-जिस विभक्ति को प्राश्रय करने की बुद्धि उत्पन्न होती है उस-उसका आश्रयण करना चाहिये।
इस वचन की वैयाकरणों के सूत्रे लिङ्गवचनमतन्त्रम् (पा०म०-४।१।६२)अत्-िसूत्र में लिङ्ग और वचन गौण हैं, के साथ करें।
उक्त दोनों महाभाष्य के वचनों को स्वामी दयानन्द सरस्वती ने संवत् १९३३ में छपवाये अपने ऋग्वेदभाष्य के नमूने के अङ्क में प्रथम मण्डल के द्वितीय
सूक्त के प्रथम मन्त्र की व्याख्या में भी पृष्ठ २४ पार उद्धृत किया है।
(३) अचेतनेष्वपि चेतनवदुपचारो दृश्यते ॥४१॥२७॥
अर्थात्-अचेतन पदार्थों में भी चेतन के समान व्यवहार देखा जाता है। इस वचन का निर्देश स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सं० १९३२ में प्रकाशित
पञ्चमहायज्ञ विधि के अन्त में मुद्रित लक्ष्मीसूक्त के ५, ७, १२ संख्याक मन्त्रों के भाष्य में 'अचेतनेष्वपि चेतनवदुपचाराद् अदोषः' के रूप में किया है।
लोक में अचेतन में चेतनवद् व्यवहार प्रायः देखा जाता है । वहां उस अचेतन द्रव्य में किसी अधिष्ठात्री आदि देवता की कोई कल्पना नहीं करता,परन्तु वेद में अग्नि, वायु आदि अचेतन द्रव्यों के चेतनवत् सम्बोधनादि को देखकर मध्ययुगीन वेदभाष्यकारों ने अधिष्ठात्री देवता की कल्पना कर ली। अचेतन द्रव्य में चेतनवत् व्यवहार- 'कूलं पिपतिषति' नदी का किनारा गिरना चाहता है। यहां अचेतन में इच्छा का अभाव होने से इसका तात्पर्य होता है- 'किनारा गिरनेवाला है।' स्वामी दयानन्द सरस्वती ने मध्ययुगीन अधिष्ठात्रीदेवतावाद से छुटकारा दिलाने के लिये 'वायवा याहि दर्शत' (ऋ० ११२।१) आदि के भाष्य में इसका चेतनवद् व्यवहार के सम्बोधन के रूप में व्याख्या न करके तात्पर्य निदर्शक 'वायुरायाति' (=वायु प्राता है) के रूप में किया है। स्वामी दयानन्द के वेदभाष्य में अचेतन पदार्थों के साथ सम्बोधन विभक्ति का प्रथमाविभक्त्यन्त और मध्यम पुरूष के क्रिया पद का प्रथम पुरुष में किया गया अर्थ देखकर अनेक विद्वान् नाक भी सिकोड़ते हैं और इसे मनमानी कल्पना
मानते हैं। ऐसे लोगों को 'कूलं पिपतिषति' के किनारा गिरनेवाला है' इस तात्पर्यार्थ रूप में कोई सन्देह नहीं होता।
सांख्यदर्शनकार ने कहा है-'लोके व्युत्पन्नस्य वेदार्थप्रतीतिः' (=लोकव्यवहार में व्युत्पन्न पुरुष को ही वेद के मूल तात्पर्य की प्रतीति होती है)। इसी बात
को ध्यान में रखकर स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के 'वैदिकप्रयोग विषयः संक्षेपतः' में लिखा है-
'व्याकरणरीत्या प्रथममध्यमोत्तमपुरुषाः क्रमेण भवन्ति । तत्र जडपदार्थेषु प्रथमपुरुष एव, चेतनेषु मध्यमोत्तमौ च । अयं लौकिकवैदिकशब्दयोः सार्वत्रिको नियमः। परन्तु वैदिकव्यवहारे जडेऽपि प्रत्यक्षे मध्यमपुरुषप्रयोगाः सन्ति। तत्रेद बोध्यम्-जडानां पदार्थानमुपकारार्थ प्रत्यक्षकरणमात्रमेव [तस्य] प्रयोजनमिति ।
इमं नियममबुद्ध्वा वेदभाष्यकारैः सायणाचार्यादिभिस्तदनुसारतया स्वदेशभाषयाऽनुवादकारक! रोपाख्यदेशनिवास्यादिभिर्मनुष्यर्वेदेषु जडपदार्थानां पूजा-
स्तीति वेदार्थोऽन्यथैव वर्णितः ।'
अर्थात् व्याकरण की रीति से प्रथम, मध्यम और उत्तम पुरुष अपनी-अपनी
जगह होते हैं । अर्थात् जड़ पदार्थों में प्रथम ही चेतन में मध्यम वा उत्तम ही होते है यह लोक और वेद के शब्दों में साधारण नियम है । परन्तु वेद के प्रयोगों में जड़ पदार्थ भी प्रत्यक्ष हों तो वहां मध्यम पुरुष का प्रयोग होता है। वहां यह भी जानना चाहिये कि ईश्वर ने जड़ पदार्थों को प्रत्यक्ष कराके केवल उनसे उपकार लेना जनाया है, अन्य प्रयोजन नहीं है।इस नियम को न जानकर सायणाचार्य प्रादि भाष्यकारों, तथा उन्हीं के बनाए हुए भाष्यों के अवलम्ब से यूरोपदेशवासी विद्वानों ने वेदों में जड़ पदार्थों की पूजा का अन्यथा वर्णन किया है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने मध्यकाल में आश्रित अन्वयपूर्विका मन्त्र व्याख्या लेखन का परित्याग करके प्राचीन आर्षकालीन परम्परानुसार स्ववेद भाष्य में यथाक्रम मन्त्रपदों की व्याख्या की है । यास्कीय निरुक्त में भी यथाक्रम मन्त्रपंदों की व्याख्या मिलती है, परन्तु उसमें दूर पठित उपसर्ग को क्रियापद के साथ जोड़कर ही मन्त्रार्थ दर्शाया है। परन्तु स्वामी दयानन्द सरस्वती ने प्रतिमन्त्र पदार्थ में क्रिया से साक्षात् असम्बद्ध व्यवहित उपसर्गों का यथास्थान यथाक्रम व्याख्यान
किया है । इस व्याख्या का आधार है पातञ्जलमहाभाष्य का निम्न वचन- (४) 'उपसर्गाश्च पुनरेवमात्मका यत्र क्रियावाची पद श्रूयते तत्र क्रियाविशेषमाहुः । यत्र हि न श्रूयते तत्र ससाधनां क्रियामाहुः' (महा शश२८)।'
अर्थात्-उपसर्गों का यह स्वभाव है कि जहां क्रियावाची शब्द प्रयुक्त होता है, वहां वे क्रिया की विशेषता को कहते हैं और जहां क्रियावाची शब्द प्रयुक्त नहीं होता वहीं वे साधन (कारक-कता, कर्म आदि) सहित क्रिया को कहते हैं अर्थात् ससांधन क्रिया को अध्याहृत करते हैं ।
मन्त्रों में प्रायः क्रियापदों और सम्बोधनों के दो प्रकार के स्वर उपलब्ध होते हैं । जहां ये पद पाद के आदि में प्रयुक्त होते हैं वहां ये उदात्त होते हैं और जहां ये पाद के मध्य वा अन्त में प्रयुक्त होते हैं वहां ये अनुदात्त होते हैं। उदात्तपद की वाक्यार्थ में प्रधानना होती हैं और अनुदात्त पद की प्रधानता । अतः मन्त्रपदानुसार व्याख्या करने पर उदात्त. क्रियापद और सम्बोधन के अर्थ की प्रधानता यथावत् रहती है । अन्वय करने पर क्रियापद को अन्त में जोड़ना पड़ता है । इससे उसके अर्थ का वैशिष्ट्य नष्ट हो जाता है । यथा पा त्वा कण्वा अहूषत, गुणन्ति विप्र ते. धियः ।
देवेभिरग्न प्रागहि । (ऋ० १.१४॥२) पदक्रमानुसार अर्थ होगा-सब ओर से तुझे कण्व बुलाते हैं, स्तुति करते हैं
हे विप्र ! तुम्हारी बुद्धियों की। देवों के साथ हे अग्ने ! आओ। इस मन्त्र में द्वितीय पाद के प्रारम्भ में होने से गुणन्ति पद उदात्त है । अतः
यहां स्तुति क्रिया की प्रधानता द्योतित होती है ।' अन्वय में गृणन्ति पद को अन्त में ले जाने पर वह स्वरशास्त्र के नियम से अनुदात्त होगा और उसका अर्थ गौण हो जायेगा। इसी प्रकार तृतीय पाद में 'अंग्ने' पद मध्य में पाने से अनुदात्त है।
अत: यहां संवोधन होने पर भी अकेले अग्नि के आगमन की अप्रधानता और पाद के प्रारम्भ में देवेभिः का निर्देश होने से देवों के साथ आगमन की प्रधानता द्योतित होती है।
लोक में भी क्रिया पद के प्रादि वा अन्त में बोलने पर विशिष्टार्थ की प्रतीति होती है । यथा-
गच्छ ग्रामम्=जा गांव को।
ग्रामं गच्छ= गांव को जा।
इन दोनों में प्रथम वाक्य में गच्छ क्रिया की प्रधानता जानी जाती है। उससे
'तत्काल गांव जा' यह अर्थ ध्वनित होता है। द्वितीय वाक्य में गच्छ की प्रधानता न होने से तात्कालिक गमन अभिप्रेत नहीं होता, केवल गांव जाने का आदेशमात्र जाना जाता है।
वाक्यरचना में पदक्रम-निर्देश भी विशेष महत्त्व रखता है। हनुमान् सीता को खोज कर जब लौटक राम के पास जाते हैं तो वे कहते हैं- दृष्टा सीता मया राम ! हनुमान देखकर राम के मन में प्रथम भाव पैदा होता है- सीता कहीं दिखाई पड़ी भी या नहीं ? अतः हनुमान् कहते हैं-दृष्टा=देखी है ।
सीता को देखा या अन्य स्त्री को ? इस संशय की निवृत्ति के लिये हनुमान् कहते हैं-सीता । स्वयं देखी वा अन्य ने देखी? इस संशय के निवृत्यर्थ हनुमान् कहते हैं-मया। अब यदि इसे अन्वयपूर्वक कहें-हे राम ! मैंने सीता को देखा, तो इससे
राम के मन में क्रमशः उत्पन्न होनेवाले भावों का यथाक्रम समाधान नहीं होता। अत एव महाभाष्यकार ने कहा है-
यथेष्टं प्रयोगो भवति आहार कुम्भम, कुम्भमाहर (१।१।१)।
सामान्यतया यह समझा जाता है कि संस्कृत भाषा में वाक्यरचना में पदों को चाहे किसी क्रम से रख दो अर्थ समान ही होगा, परन्तु यह धारणा मिथ्या है।वेद में तो क्रिया पद तथा सम्बोधन पद के पाद के प्रारम्भ में आने पर उनके
उदात्त होने से अर्थ का वैशिष्ट्य तो जाना ही जाता है, परन्तु अन्य पदों के अर्थ में भी स्थान या क्रम के कारण कुछ न कुछ वैशिष्ट्य जाना जाता है । जैसे ऊपर उद्धृत मन्त्र के 'देवेभिरग्न आगहि' में देवेभि के प्रारम्भ में पठित होने से उनके सहित अग्नि का आगमन इष्ट है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती के भाष्य की विशेषताः पदार्थ में है। हां; जिन लोगों को काव्य साहित्य अन्वयपूर्वक पढ़ने-पढ़ाने का स्वभाव बन चुका है, वे बिना अन्वय के पदार्थ समझने में असमर्थ होते हैं । अतः ऐसें मध्यम कोढ़ि के व्यक्तियों के लिये स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वेदभाष्य में अन्वय की भी व्यवस्था की है और जो साधारण जन हैं उनको भी मन्त्र का कुछ तात्पर्य समझ में आ जाये, इसलिये
मन्त्र का भावार्थ भी दर्शाया है । 'मन्त्रोक्त पुंल्लिङ्ग पद का स्त्रीलिङ्ग रूप में भी अर्थनिर्देशः-- महाभाष्यकार
पंतजलि ने 'ऊह' के प्रसङ्ग में वेदार्थविषयक एक विशिष्ट तत्त्व का व्याख्यान इस प्रकार किया है
(५) ऊहः खल्वपिन च सर्वलिङ्गर्न च सर्वाभिविभक्तिभिर्वेदे मन्त्रानिगदिताः । ते च यज्ञगतेन पुरुषेण यथायथं विपरिणमयितव्याः (महा०१:१०१)।
अर्थात् वेद में सब लिङ्गों और सब विभक्तियों से युक्त मन्त्र नहीं पढ़े हैं उनकी यज्ञों के प्रसङ्ग में यतिथै ऊहा कर लेनी चाहिये। इस प्रसङ्ग में पूर्वोक्त व्याकरणनियम 'सूत्रे लिङ्गवचनमतन्त्रम्' का सम्बन्ध भी जाम लेना चाहिये।
इस वचन में केवल लिङ्ग और वचनों के विषय में कहा है, परन्तु यज्ञों में प्रातिपदिक का भी ऊह होता है। जैसे -पौर्णमासेष्टि प्रकरण में हवि के निर्वाप के दो मन्त्र.पढ़े हैं-
अग्नये त्वा जुष्टं निर्वपामि,अग्नीषोमाभ्यां त्वा जुष्टं निर्वपामि(यजु०१५१३)
अर्थात्-मैं अग्नि देवता के लिये हवि को ग्रहण करता हूँ, अग्नि सोम देवताओं के लिये हवि को ग्रहणं करता हूं। यदि किसी को सौर्येष्टि के लिये हवि का निर्वाप करना हो तो मन्त्र पढ़ा जायेगा 'सूर्याय त्वा जुष्टं निर्वामि', इन्द्राग्नी देवताक यज्ञ में मन्त्र पढ़ा जायेगा-इन्द्राग्निन्यां त्वा जुष्टं निर्वपामि।
महाभाष्य के उपर्युक्त वचन में 'न सर्वलिङ्गः' पाठ हैं । पाणिनीय व्याकरणानुसार लिङ्ग शब्द पुमान्, स्त्री और नपुसंक के लिये प्रयुक्त होता है, परन्तु कातन्त्रव्याकरण में लिङ्ग शब्द से प्रातिपदिक का निर्देश किया जाता है। प्राति-
पदिक किसी न किसी लिङ्ग से युक्त होता है। अत: महाभाष्य के उक्त वचन में लिङ्ग शब्द से तद्विशिष्ट प्रातिपदिक का ग्रहण करना उचित है अन्यथा विकृतियागों में प्रातिपदिक का ऊह किस आधार पर होगा?
स्वामी दयानन्द सरस्वती वैदिक मतानुसार स्त्री और पुरुष का समान अधिकार मानते थे। यास्कीय निरुक्तम में एतद्विषयक स्वायम्भुव मनु का एक श्लोक पढ़ा है-
अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः। मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥ (निरु० ३।४) गृह्यसूत्रों के विवाह प्रकरण में वर के प्रतिज्ञा मन्त्र पढ़े हैं । परम्परानुसार इन मन्त्रों से वर ही वधू से प्रतिज्ञा करवाता है, परन्तु स्वामी दयानन्द सरस्वती ने संस्कारविधि में प्रतिज्ञामन्त्रों का अर्थ करते समय वधू के द्वारा वर से प्रतिज्ञापरक अर्थ भी किया है।
यह अर्थ 'यज्ञगतेन पुरुषेण यथायथं विपरिणमयितव्याः'
वचन के अनुसार मया पत्या के स्थान पर मया पत्न्या, पत्नी त्वमसि के स्थान में पतिस्त्वमसि आदि का विपरिणाम स्वीकार करके दर्शाया है। वैदिक विवाह की सप्तपदी के अनुसार विवाह्यमान स्त्री को सखा का दर्जा दिया है-सखे सप्तपदी भव। जैसे पुरुषों के पुरुष मित्र परस्पर समान अस्तित्व रखते हैं, कोई किसी से छोटा या बड़ा नहीं होता, उसी प्रकार पति सप्तपदी के मन्त्र में विवाह्यमान नारी को सखा कहकर समानता का दर्जा देता है। इस लिये विवाहप्रकरण के प्रतिज्ञा मन्त्रों के द्वारा दोनों का प्रतिज्ञाबद्ध होना आवश्यक है (६) संस्कारविधि की रचना स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गृह्यसूत्रों के आधार पर की है। उसमें जिन मन्त्रों के अर्थ स्वयं ग्रन्थकार ने लिखे हैं, उनमें महाभाष्य का प्राधार स्पष्ट प्रतिभासित है। यथा-प्रतिज्ञामन्त्रों के अर्थ । (७) विवाह प्रकरण में विवाह के अनन्तर उसी रात्रि में गर्भाधान करने का तथा तीन दिन ब्रह्मचर्य पालन. उपरान्त चतुर्थ रात्रि में गर्भाधान का विधान किया है । ये दोनों विधियां परस्पर विरुद्ध सी प्रतीत होती हैं । इस विरोध का निवारण "पक्षान्तरैरपि परिहारा भवन्ति” (महा० ११ ऋलुक्) के अनुसार ही किया जा सकता है।'इसीलिये स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में पाणिनीय अष्टाध्यायी के समान महाभाष्य को भी वेदार्थ में विशेष सहायक माना है- मनुष्यर्वेदार्थविज्ञानायव्याकरणाष्टाध्यायीमहाभाष्याध्ययनम् ॥(द्र०—पठन-पाठन विधि) (८) महाभाष्य के पाठ को बिना उद्धृत किये उसके आधार पर व्याख्या करना-पं० महेशचन्द्र न्यायरत्न के द्वारा निरुक्त के अग्निः पृथिवीस्थानः (७।१४) को उद्धृत करके 'अग्नि का अर्थ ईश्वर नहीं हो सकता' प्राक्षेप का भ्रान्तिनिवारण ग्रन्थ में जो उत्तर स्वामी दयानन्द सरस्वती ने दिया है, वह अष्टाध्यायी ११८ सूत्र के महाभाष्य में उल्लिखित 'प्रासादवासी-न्याय' के अनुसार है। महाभाष्य में
लिखा है "तद्यथा-केचित् प्रासादवासिनः, केचिद् भूमिवासिनः, केचिदुभयवासिनः ।
तत्र ये प्रासादवासिनो गृह्यन्ते ते प्रासादवासिग्रहणेन । ये भूमिवासिनो गृह्यन्ते ते भूमिवासिग्रहणेन । ये तूभयवासिनो गृह्यन्त एव ते प्रासादवासिग्रहणेन, भूमिवासि-
ग्रहणेन च ।" महा० १११।१८।।
इसी प्रकार जो ब्रह्म पृथिवी,अन्तरिक्ष और द्यलोक में सर्वत्र व्यापक है, वह पृथिवीस्थान के ग्रहण से गृहीत होता है। (द्र०-भ्रान्तिनिवारण-दयानन्दीय लघु-ग्रन्थ संग्रह, पृष्ठ २१.३.)।
(६) अब हम स्वामी दयानन्द सरस्वती के उन ग्रन्थों का उल्लेख करते हैं, जिनमें उन्होंने महाभाष्य के उद्धरण दिये हैं-(क) सत्यार्थप्रकाश (क्रमशः पृष्ठ ६१, १०२, ५२३)
सामृतैः पाणिभिनन्ति गुरवो न विषोक्षितैः ।
लालनायिणो दोषास्ताडनाश्रयणो गुणाः ॥ महा० ८।१८॥
श्रोत्रोपलब्धिबुद्धिनिर्ग्राह्यः प्रयोगेणाऽभिज्वलित आकाशदेशः शब्दः ।
महा० अं०१; पा० प्रा० १॥
आद्यन्तविपर्ययश्च । महा० ३।१।१२३॥
(ख) भ्रमोच्छेदन (क्रमशः पृष्ठ १४६, २५४)-
एकतिङ्वाक्यम् । महा० २।१।१॥
क्वास्ताः क्व निपतिताः । महा०,१॥२६॥
(ग) भागवतखण्डन (पृष्ठ ४६६)
वसिस्संप्रसारिणी। द्र०-महा० ७।२।१०॥
(घ) व्यवहारभानु (क्रमशः पृष्ठ. ५०३, ५०६.)-
चतुभिः प्रकारविद्योपयुक्ता भवति । आगमकालेन स्वाध्यायकालेन प्रवचनकालेन व्यवहारकालेनेति । महा० अ० १ पा० १, प्रा० १
सामृतः पाणिभिनन्ति गुरवो न विषोक्षितः ।
लालनायिणो दोषास्ताडनाश्रयिणो गुणाः ।। महा० १५१६॥
(१०) पत्र प्रादि में महाभाष्य के उद्धरण-स्वामी दयानन्द सरस्वती ने महाभाष्य का विविधरूप से आश्रय केवल अपने ग्रन्थों की रचना में ही नहीं लिया, अपितु पत्रों, शास्त्रार्थों, प्रवचनों एवं आर्यसमाज के नियमों की व्याख्या तक में महाभाष्य के आवश्यक उद्धरण दिये हैं । यथा-
(क) पत्रों में-जोधपुराधीश यशवन्त राव को लिखे गये पत्र में "प्रधानाप्रधानयोः प्रधाने कार्यसम्प्रत्ययः-महाभाष्य" पाठ उद्धृत है। (द्र०--ऋ० द० स० के पत्र और
विज्ञापन, भाग २, पृष्ठ ७४४, सं० २०३८) ।
देशहितषी पत्र के सम्पादक के नाम लिखे समीक्षा पत्र - में 'गौणमुख्ययोः मुख्य कार्यसम्प्रत्ययः—यह व्याकरण महाभाष्यकार का वचन है' पाठ उपलब्ध
होता है । (द्र०-वही, पृष्ठ ५६५) ।
(ख) शास्त्रार्थ में- व्याकरणे कल्मसंज्ञा क्वापि लिखिता नवेति ।
यह प्रश्न स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सं० १९२६ के काशी शास्त्रार्थ में किया था (द्र०-ऋ० द० स० के शास्त्रार्थ और प्रवचन, पृष्ठ ४१)। इस शास्त्रार्थ को पं० सत्यव्रत सामश्रमी ने भी स्वीय प्रत्नक म्रनन्दिनी पत्रिका में छापा था,
वहां इसका पाठ इस प्रकार है-
'कल्म संज्ञा कस्य ? (गर्जन्) वद ! वद !' (वही पृष्ठ २२६)।
(ग) प्रवचनों में-
धावतः स्खलनं न दोषाय भवति । महाspanie
पूनाप्रवचन (८) (द्र० – ऋ० द० स० के शास्त्रार्थ और प्रवचन पृष्ठ३६६)।
हमें यह वाक्य महाभाष्य में नहीं मिला।
ब्राह्मणेन [निष्कारणो धर्मः] षडङ्गो वेदोऽध्ये[यो ज्ञे] यश्चेति ।
महा० अ० १, पा० प्रा० १॥(वही पृष्ठ ३७८) ।
(घ) प्रा० स० के नियमों की व्याख्या में व्याख्यान-जैसा
। 'असिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्गे (नियम १७)
इन प्रमाणों से यह अत्यन्त स्पष्ट है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती के समस्त ग्रन्थ लेखन कार्य तथा पत्रों शास्त्रार्थों और प्रवचनों तक में पातञ्जल महाभाष्य व्याप्त है । दूसरे शब्दों में उनके समस्त लेखन कार्य को महाभाष्य पर ग्राश्रित कह सकते हैं । वस्तुतः महाभांष्य स्वामी दयानन्द सरस्वती के रग-रग में व्याप्त था । आवश्यकता पड़ने पर वे उसके किसी भी वचन का कहीं भी प्रयोग करने में पूर्ण सक्षम थे।
Comentários