छन्दांसि पद से अथर्ववेद का ग्रहण करना भी शास्त्र सम्मत और आर्ष प्रयोग है।
- Aryavart Regenerator
- Jul 22, 2020
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।।ओ३म्।।
-निशांत आर्य
आज हमारे एक नेपाल के मित्र ने महर्षि दयानंद सरस्वती जी द्वारा रचित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिकान्तर्गत महर्षि के छन्दांसि पद के अर्थ पर शंका कि है अतः उनके शंका का समाधान प्रस्तुत है ।
उन्होंने जिस मंत्र अंतर्गत पद पर शंका की है वो पूरा मंत्र यह है- तस्माद् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तास्मादजायत॥1॥
महर्षि ने यहाँ पर छन्दांसि शब्द का अर्थ करते हुए लिखा है की-अथर्ववेदश्च अर्थात और इस से अथर्व वेद भी।
हमारे मित्र की शंका है की छन्दांसि से अथर्व वेद का ग्रहण कैसे हुआ?
समाधान- अनेक भाष्यकारो ने छन्दांसि से छन्द ही ग्रहण किया है। किन्तु सभी वेद छंदोयुक्त होने पर भी मंत्र में पुनः छन्द का उच्चारण अथर्व वेद को ही सूचित करता है । व्याकरण शास्त्र के नियमानुसार यदि किसी धर्म या वस्तु के स्वतः होने पर भी पुनः विशेषित किया जाए तो उसका विशेषण से विशेष धर्म सूचित होता है। जैसे उदर होने पर भी उदरिणी कहने से विशेषोदरत्व (गर्भवती होने) की सूचना मिलती है । महाभाष्यकार ने यह तदस्यास्त्यसि्मन्निति मतुप् (पा०सू०५,२,६४) इस सूत्र के भाष्य में कहा है ठीक ऐसे ही यहाँ भी सभी वेदों को छंदों से युक्त होने पर भी अलग से छन्दांसि का प्रयोग होने से विशेष छन्द वाले अथर्ववेद को ही सूचित करता है।
कुछ इस पर ऐसी शंका कर सकते है कि- यजु: और साम के उत्पत्ति के बीच गायत्री त्रिष्टुप आदि छंदों के वाचक छन्द कि उत्पत्ति का वर्णन अस्थान में होने से सर्वथा असंगत है।
किन्तु यह अनुचित है क्योंकि बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे- महर्षि कणाद के इस वचन के रहते ऐसा सम्भव नही यदि छन्दांसि पद ऋचः- सामानि यजु: का विशेषण होता तो इसके साथ पृथक्तः "तस्मात् जज्ञिरे" सर्वनाम और क्रिया पद का प्रयोग नही होता। वास्तव में जिस प्रकार यहां ऋच:, सामानि और यजु: के साथ पृथक रूप में तस्मात्" सर्वनाम और जज्ञिरे व अजायत क्रिया पदों का प्रयोग किया गया है अतः ऋग् यजु: साम की भांति छन्दांसि की पृथक सत्ता है। तब परिशेषन्याय से छन्दांसि अथर्व वेद का ही वाचक रह जाता है।
गौपथ ब्राह्मण(१,२९) के अनुसार ऋग्वेद का प्रमुख छन्द गायत्री,यजुर्वेद का त्रिष्टुप और सामवेद का जगति है। वहीं पर अथर्ववेद के विषय में कहा है कि- अथर्वाणांं सर्वाणि छन्दांसि अर्थात अथर्ववेद में सभी छन्द है। अतः छंदों के वैविध्यपूर्ण बाहुल्य के कारण ही अथर्ववेद को छन्दांसि,छंदोह छंदोंवेद के नाम से अभिहित किया गया है। हरिवंश पुराण में भी २,१०९,७ में भी छंदस्याथर्वणानि कह कर पर्यायवाची में प्रयोग करने से यह पुष्ट है की महर्षि दयानंद जी का छन्दांसि से अथर्ववेद का ग्रहण करना बिल्कुल ही उचित है । इसमे किंचित भी संदेह की आवश्यकता नही ।
।।ओ३म् ।।
उत्तम विवेचनात्मक लेख