नव द्वारा वाले इस नगरी में जीवात्मा का निवास स्थान कहाँ
- Aryavart Regenerator
- Jul 8, 2020
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-निशांत आर्य ।
नमस्ते मित्रों जैसा कि मैंने कहा था कि जीवात्मा शरीर में किस स्थान विशेष में निवास करता है, इस विषय पर आज लेख प्रकाशित करूँगा अतः यह लेख उक्त विषय को ले कर प्रस्तुत है।
आत्मा के शरीर में निवासस्थान के विषय में अनेक प्रचलित हैं। प्रस्तुत लेख में आत्मा का वास्तविक निवास स्थान कहाँ है यही संक्षेप से प्रतिपादित किया जाएगा।
जो व्यक्ति आत्मा को उत्पत्तिविनाशधर्मा मानते हैं, अर्थात् शरीर के अतिरिक्त किसी नित्य पदार्थ को स्वीकार नहीं करते[पुरातन चार्वाक मतानुयायी एवं आधुनिक विकासवादी], उनके मत में यह प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता कि आत्मा शरीर के किस स्थान में निवास करता है ? इसी प्रकार जो आत्मा को शरीर से पृथक् नित्य मानते हुए भी उसे सर्वव्यापक मानते हैं [नैयायिक आदि दार्शनिक], उनके मत में भी यह प्रश्न उत्पन्न नहीं होता। यह प्रश्न तो केवल उनके मत में ही उत्पन्न होता है, जो आत्मा को शरीर से पृथक् नित्य पदार्थ मानते हुए उसे अणु, परमाणु वा परिच्छिन्न परिमाणवाला मानते हैं।
आर्य समाजी लोगो मे एक गलत धरणा यह बन गयी है कि और साथ हि एक वर्ग विशेष के लोग महर्षि दयानंद के ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का नाम ले कर यह कह रहे है कि महर्षि दयानंद जी , कंठ के नीचे और उदर के ऊपर जो स्थान है वह हृदय प्रदेश है और उसी हृदय प्रदेश में आत्मा का निवास स्थान है।
उसके लिए वो महर्षि दयानंद ऋग्वेदादिभाष्य के हिंदी भाग के इस वचन को उधृत् करते है-
"कण्ठ के नीचे, दोनों स्तनों के बीच में और उदर के ऊपर जो हृदय देश है"
किन्तु यह बात भ्रम मुलक है और आर्ष गर्न्थो के विरुद्ध होने से प्रमाणिक नही है ।
वास्तविकता यह है कि महर्षि दयानंद ने ऐसा कही लिखा ही नही है। महर्षि दयानंद जी का जो ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ है उसमें जो संस्कृत का भाग है वही महर्षि दयानंद के द्वारा लिखा हुआ है , उस संस्कृत का हिंदी अनुवाद सामान्य पंडित लोगो ने किया है, हिंदी भाग महर्षि दयानंद जी कृत नही है।
यदि संस्कृत के भाग को देखे तो महर्षि ने मात्र संस्कृत भाग में उक्त प्रसंग में महर्षि दयानंद जी ने -छान्दोग्योपनि॰ प्रपा॰ 8। मं॰ 3 को उधृत करते हुए ऐसा लिखा है-
•अथ यदिदमस्मिन् ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकं वेश्म दहरोऽस्मिन्नन्तराकाशस्तस्मिन् यदन्तस्तदन्वेष्टव्यं तद्वाव विजिज्ञासितव्यमिति॥3॥
अब यदि महर्षि के इस संस्कृत भाग का अर्थ यदि करे तो वो कुछ ऐसा होगा-
पदार्थ- अथ(तो) यद(जो)इदम् (यह) अस्मिन(इस) ब्रह्मपुरे(ब्रह्म नगरी , शरीर) मे,दहरम्(छोटा, अनु सा) पुण्डरीकम(कमल जैसा) वेश्म(घर सा, हृदय)है। दहरः- (छोटा सा) अस्मिन(इस हृदय रूप घर मे) अंतः(अंदर) आकाशः(आकाश) है, तस्मिन(उसमे)यद(जो)अन्तः(अंदर है)उसको, अनवेष्टव्यम् (ढूंढना चाहिए) तद् वा व (उसकी ही) विजिज्ञासितव्यम् (जानने की इच्छा करनी चाहिए )
अब यदि महर्षि दयानंद जी के इस संस्कृत भाग के अर्थ को देखे तो कही भी "उदर के ऊपर या कंठ के नीचे" आदि में हृदय प्रदेश का वर्णन है ही नही, अतः महर्षि के नाम से जो लोग हृदय स्थित आत्मा का स्थान कण्ठ के नीचे और उदर के ऊपर कहते है यह सर्वथा निर्मूल है ।क्यो कि यहाँ मात्र हृदय मे स्थित हृदयाकाश है उसको जानना चाहिए इतना कहना ही महर्षि का प्रयोजन था ।
हम कुछ उपनिषदों के और प्रमाण प्रस्तुत करना चाहेंगे जिस में यह बताया गया है कि आत्मा का निवास स्थान कहाँ है-
●अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्ट:। कठो. २।६।१७
भावार्थ- अंगुष्ठ आकर वाले हृदय में विद्यमान होने से परमात्मा आत्मा के अंदर हमेशा जन्मधारी मनुष्यो के हृदय में बैठा हुआ है, उस परमात्मा को अपने शरीर से बाहर निकाल कर प्रत्यक्ष कर....आदि
इस प्रमाण से यह सिद्ध हुआ कि आत्मा का निवास स्थान हृदय है । अन्यत्र भी जीवात्माको एकदेशी होने से केवल हृदयस्थ है- स वा आत्मा हृदि(छांदोग्य०८,३,३) हृद्यन्तज्योर्तिः पुरुषः(पुरुषः)( बृहदारण्यक०४,३,७) में कहा गया है ।
आचार्य सायण भी अपने अथर्ववेद भाष्य१९,९,५ में हृदयं हि आत्मनिवासस्थानम् कहा है । इस से सिद्ध है कि आत्मा का निवास स्थान हृदय है।
किन्तु यह हृदय शरीर के किस स्थान विशेष में है इसमें विद्वान वैमत्य है। अनेक लोग हृदय शब्द से समान्यतः वक्षन्तःस्थित रक्ताशय अथवा रक्तक्षेपक ही समझते है।
किन्तु वेद ,उपनिषद, आयुर्वेद आदि गर्न्थो पर दृष्टिपात करे तो पता चलता है कि एक और शरीरांग है जिसकी संज्ञा हृदय है।
सुश्रुत संहिता में कहा है- प्रत्यक्षतों हि यद् दृष्टं शास्त्रदृष्टं च यद् भवेत् । समासतस्तदुभयं भूयो ज्ञानविवर्धनम् ।।
अर्थात- यदि शास्त्र विहित बात प्रत्यक्ष से भी सिद्ध हो तो उसमे किसी प्रकार का संदेह नही रहता। आयुर्वेद प्रत्यक्ष सिद्ध है। उसके आधार पर वेद का प्रमाण सिद्ध करते हुए न्याय दर्शन में कहा है- मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवच्च तत्प्रमाण्यमाप्तप्रमान्यात(२,१,६८) अर्थात् वेद के अंदर जो आयुर्वेद का भाग है उसके अनुसार कार्यानुष्ठान से अनुकूल फल की प्राप्ति होना प्रत्यक्ष है, इस से उतने वेद भाग का प्रमाण सिद्ध हो जाने पर समस्त वेद का प्रमाण सिद्ध हो जाता है ।
और हृदय का तो सीधा संबंध भी चिकित्सा शास्त्र से सिद्ध है , वैदिक और वर्तमान काल मे चिकित्सा में आयुर्वेद आता ही है और आयुर्वेद शास्त्र से हृदय का सम्बन्ध है । आयुर्वेद वेदों का उपवेद होने से भी उसका प्रामाण्य स्वतः सिद्ध है। सुश्रुत में हृदय को चेतना स्थान कहा गया है। अतः शरीर का कौनसा अंग चेतना स्थान है इसका निश्चय प्रथम आयुर्वेद से करना उपयुक्त होगा ।
चेतना शब्द का अर्थ है ज्ञान। किसी भी वस्तु के रूप रस गंध, स्पर्श का ज्ञान मस्तिष्क को ही होता है । यह निर्विवाद है। ज्ञान तंतुओं अथवा ज्ञानसंवाहक नाड़ियों तथा ज्ञाननेंद्रिय के गोलको के माध्यम से वस्तुओं का ज्ञान मस्तिष्क को ही होता है और कर्मेन्द्रियों से जो कार्य करना होता है उसका निर्देशन भी मस्तिष्क ही करता है । हम कहते है सोचते है या पढ़ते है उसका प्रभाव भी मस्तिष्क पर ही पड़ता है
आयुर्वेदो ने या आधुनिक चिकित्सकों ने भी शरीर के प्रत्येक अंग के क्रियाओं का अध्ययन बड़ी सूक्ष्मता से कर के उसका केंद्र मस्तिष्क को ही बताया है । उसके अनुसार मस्तिष्क ही चेतना का स्थान है । वक्षान्तःस्थित हृदय चेतना शून्य है । वह केवल रक्त संवाहक केंद्र है ।
ऐतरेय उपनिषद के इस वचन से इसकी संगति ठीक बैठती है-
•यदेतद् हृदयं मनश्चैतत्। संज्ञानमं, अज्ञानं विज्ञानं मेधा दृष्टिः मतिः मनीषा, जुतिः स्मृतिः संकल्पः क्रतुः असुः कामो, वश इति सर्वाण्यैतानि प्रजानस्य नामध्येयानि (१,२,४)
सुश्रुत का पूरा श्लोक इस प्रकार है-
हृदयं चेतनास्थानमुक्तम सुश्रुत देहिनाम् । तमोभिभूते तस्मिस्तु निद्रा विशति देहिनम्।( शरीर स्थान४/३४)
अर्थात- हे सुश्रुत! देहियों का चेतना स्थान हृदय कहा जाता है। वह हृदय जब तमस से अभिभूत हो जाता है तो देही निद्रा अवस्था में प्रवेश कर जाता है। रक्त का प्रक्षेपन करने वाला हृदय तो जाग्रत और सुसुप्ति दोनो अवस्था में अनवरत अपना काम करते रहता है।
इसलिए उसके तमस से अभिभूत होकर निद्रा का प्रयोजक बनने का प्रश्न ही नही उठता है । इन्द्रियों का गोलक स्थूल शरीर का अंग है , जबकि उसकी शक्ति का स्रोत आत्मा में निहित है । तब जिस हृदय में आत्मा का वास है वो रक्त क्षेपक हृदय नही हो सकता है । वह मस्तिष्क प्रदेश होना चाहिए ।
सुश्रुत में एक यह बात भी आई है कि- पुण्डरीकेण सदृशं हृदयं स्यादधोमुखम्। जाग्रतद् विकसति स्वपतश्च निमिलति ।
जाग्रतावस्था में हृदय का व्यापार चलता है और सो जाने पर वह बंद हो जाता है- जैसे कमल खिलता और बंद होता है। यह स्थिति चेतनास्थान हृदय अर्थात् मस्तिष्क की होती है , रक्तक्षेपक हृदय की नही । रक्तक्षेपक हृदय तो मृत्यो होने के पूर्व तक चलता रहता है । क्यो की यदि मस्तिष्कतर्गत न माना जाय और रक्त क्षेपक हृदय को माने तो उसके बंद होते है व्यक्ति मृत्यु को गले लगा लेगा जो कि सम्भव नही है ।
इसमे अथर्ववेद का एक मन्त्र यह (१९,९,५)भी है- जो अत्यंत स्प्ष्ट एवं महत्वपूर्ण है- इमानि यानी पंचेन्द्रीयाणि मनः षष्ठानि में हृदि ब्रह्मणा संश्रितानि-अर्थात् ये जो प्रत्यक्षरूप से प्राप्त छठे मन सहित पांच ज्ञाननेंद्रिय आत्मा के साथ मेरे हृदय में आश्रित है।
इस मन्त्र में स्प्ष्ट कहा है कि मन के साथ पांच ज्ञाननेंद्रिय को ब्रह्म =आत्मा के साथ हृदय में स्थित है।
और ज्ञान इंद्रियों का स्थान निश्चित ही शिर है। शिरो वै देवानां वाहनम् । इनके तंतुओं का सम्बन्ध मस्तिष्क =ब्रह्मरंध्र या ब्रह्मगुहा के साथ सर्ववादी सम्मत है ।
इन्द्रियों के उसी स्थान को इस वेद वचन में हृदय कहा है जो कि स्प्ष्ट है और वही आत्मा का स्थान बतलाया है
अतः यह सिद्ध हुआ कि महर्षि दयानंद व अन्य आर्ष ग्रन्थ दोनो के अनुसार आत्मा का निवास स्थान के लिए जो हृदय संज्ञा दी गयी है वो स्थान मस्तिष्क अंतर्गत हृदय से है न कि रक्तक्षेपक हृदय अथवा उदर के ऊपर ओर कंठ के नीचे वाले स्थान में ।
मेरे द्वारा प्रस्तुतः लेख को लिखने में स्वामी विद्यानंद सरस्वती जी के पुस्तक की सहायता भी ली गयी है।
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