यजुर्वेद में घूमती पृथ्वी: आपत्तियों के उत्तर
- Aryavart Regenerator
- Jul 9, 2020
- 10 min read
- कार्तिक अय्यर
(दिनांक- ९/०७/२०२०)
।।ओ३म्।।
पाठकगण! महर्षि दयानंद जी ने वेदादिशास्त्रों का गंभीर स्वाध्या किया और इनमें वैज्ञानिक सिद्धांतों को भी ढूँढ़ निकाला। उन्होंने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका और सत्यार्थप्रकाश में भी भू-भ्रमण,तारविद्या,विमानविद्या आदि का वर्णन किया।
परंतु उसके बाद महर्षि दयानंद का उपहास उड़ाया ही गया। इसी तरह भू-भ्रमण के सिद्घांत पर ऋषि ने वेदों के प्रमाण दिये हैं। उन पर एक समय पं कालूराम ने "आर्यसमाज की मौत" नामक पुस्तक में उल्लेख करके खंडन करने का प्रयास किया था। उसका धारदार खंडन पं मनसाराम जी 'वैदिक तोप' ने "पौराणिक पोल प्रकाश" में किया था। आजकल नास्तिक नवबौद्ध लेखक डॉ सुरेंद्रकुमार अज्ञात ने 'क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म' में यही आक्षेप किये थे। उनका धारदार खंडन हमने 'क्या वेदों में अवैज्ञानिक बातें हैं?' इस श्रृंखला में किया था। विदित हो कि हमारे एक अनुज अर्जित आर्य ने हमें बताया कि एक ए.अंकित नामक व्यक्ति ने वही लेख ट्वीटर पर सुरेंद्र अज्ञात को टैग किया व लिखा-" सर जी, आप ही को पढ़कर मैंने आर्यसमाज छोड़ा है। इस कार्तिक अय्यर ने आपका खंडन किया है।कृपया इसको जवाब दें।" (यह उसका भावमात्र है।मूल स्क्रीनशॉट मिलने पर प्रस्तुत करूंगा।)
अर्थात् हमारे फोड़े गये वैचारिक बम का धमाका अज्ञात जी के कानों तक भी पहुंच रही है।अाजकल उनकी उपरोक्त पुस्तक मुस्लिम, नवबौद्ध,नास्तिक आदि प्रचारकों की बाइबिल बन चुकी है। उसी में से एक लेख लिखा गया है, जिसमें महर्षि दयानंद के यजुर्वेद मंत्र भाष्य पर अाक्षेप किये हैं। वैसे इस विषय पर अज्ञात मत खंडन सीरीज़ में हम लिख चुके हैं, पर कुछ अतिरिक्त प्रमाणों के साथ इस लेख में लिखते हैं।
महर्षि दयानंद ने जो भू-भ्रमण का प्रमाण दिया, वो यों है-
आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्
मातरं च पुरः पितरं च प्रयन्त्स्वः।।
( यजुर्वेद अध्याय ३ मंत्र ६)
(आयं गौः॰) गौ नाम है पृथिवी, सूर्य्य, चन्द्रमादि लोकों का। वे सब अपनी अपनी परिधि में, अन्तरिक्ष के मध्य में, सदा घूमते रहते हैं। परन्तु जो जल है, सो पृथिवी की माता के समान है क्योंकि पृथिवी जल के परमाणुओं के साथ अपने परमाणुओं के संयोग से ही उत्पन्न हुई है। और मेघमण्डल के जल के बीच में गर्भ के समान सदा रहती है और सूर्य उस के पिता के समान है, इस से सूर्य के चारों ओर घूमती है। इसी प्रकार सूर्य का पिता वायु और आकाश माता तथा चन्द्रमा का अग्नि पिता और जल माता। उन के प्रति वे घूमते हैं। इसी प्रकार से सब लोक अपनी अपनी कक्षा में सदा घूमते हैं।
इस विषय का संस्कृत में निघण्टु और निरुक्त का प्रमाण लिखा है, उस को देख लेना। इसी प्रकार सूत्रात्मा जो वायु है, उस के आधार और आकर्षण से सब लोकों का धारण और भ्रमण होता है तथा परमेश्वर अपने सामर्थ्य से पृथिवी आदि सब लोकों का धारण, भ्रमण और पालन कर रहा है॥1॥
[ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पृथिव्यादिलोकभ्रमणम् विषय]
यजुर्वेद भाष्य में कुछ ऐसा ही भाष्य है। हम केवल पंडितों द्वारा बनाया उनका भाषाभाष्य व भावार्थ देते हैं-
पदार्थः—(अयम्) यह प्रत्यक्ष (गौः) गोलरूपी पृथिवी (पितरम्) पालने करने वाले (स्वः) सूर्यलोक के (पुरः) आगे-आगे वा (मातरम्) अपनी योनिरूप जलों के साथ वर्त्तमान (प्रयन्) अच्छी प्रकार चलती हुई (पृश्निः) अन्तरिक्ष अर्थात् आकाश में (आक्रमीत्) चारों तरफ घूमती है॥६॥
भावार्थः—मनुष्यों को जानना चाहिये कि जिससे यह भूगोल पृथिवी जल और अग्नि के निमित्त से उत्पन्न हुई अन्तरिक्ष वा अपनी कक्षा अर्थात् योनिरूप जल के सहित आकर्षणरूपी गुणों से सब की रक्षा करने वाले सूर्य के चारों तरफ क्षण-क्षण घूमती है, इसी से दिन रात्रि, शुक्ल वा कृष्ण पक्ष, ऋतु और अयन आदि काल-विभाग क्रम से सम्भव होते हैं॥६॥
( महर्षि दयानंद कृत यजुर्वेद भाष्य)
महर्षि दयानंद ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में निरुक्त व यजुर्वेद भाष्य में शतपथब्राह्मण के अनुसार इस मंत्र का ऐसा अर्थ किया है। बाकी इस पर विस्तृत भाष्य का विवरण, जिसमें वे प्रमाणों के साथ व्याख्या करते हैं, वो आप onlineved.com में देखें। इस पर कुछ आगे प्रकाश डालेंगे।
अब वादी की आपत्तियों का उत्तर लिखते हैं-
आपत्ति-१- निरुक्त के अनुसार मंत्र का देवता ही मंत्र का प्रतिपाद्य विषय होता है। इस मंत्र का देवता अग्नि है। इसलिये इसमें अग्नि की स्तुति होनी चाहिये। आपने पृथ्वी, सूर्य , भू-भ्रमण आदि का अर्थ मनमाना और पुराने भाष्यकारों के विरुद्ध किया है।
उत्तर-
प्रथम तो, पुराने भाष्यकारों से यदि महीधर,उव्वट आदि से आपका आशय है, तो उनके भाष्यों का खंडन आगे किया जायेगा। ये भाष्यकार ७०० साल के अंदर हुये हैं। जबकि यजुर्वेद का पारंपरिक व्याख्यान ग्रंथ शतपथब्राह्मण है, जिसमें इस मंत्र के व्याख्यान में पृथ्वी व सूर्य का वर्णन और भू-भ्रमण ही माना है, उसे आगे जाकर प्रकाशित करेंगे।
द्वितीय, निरुक्त के अनुसार तो मंत्र में आये 'गौ' शब्द का अर्थ पृथ्वी है और निरुक्तकार इस पर भू-भ्रमण परक ही अर्थ करते हैं। देखिये-
गौरिति पृथिव्या नामधेयं यद् दूरं गता भवति यच्चास्यां भूतानि गच्छन्ति॥-(निरुक्त अध्याय २ खंड ५)
'गौ पृथ्वी का नाम है, क्यों कि वो दूर-दूर तक जाती है और जिसमें सारे भूत(प्राणी) चलते हैं।'
इस पर मध्यकालीन पौराणिक निरुक्तभाष्यकार स्कंदस्वामी भाष्य करते हैं-
"जो दूर तक जाती हो, जिसमें गमनागमन क्रिया व्यवहार के दूर जाने की गति उपलब्ध है,वह गौ अर्थात् पृथ्वी है।और जिस पर प्राणीजन भूत गति करते हैं उस अर्थ में गौ है। गाते: ये स्तुति अर्थ में औकार प्रत्यय है। अत: जिसमें गान स्थित हो, जिसकी स्तुति का गायन हो वो साविति गौ: है। यह पूर्व और यहां क्रिया कारक भेद से निर्वचन है। यहां उन्होंने तक्षा अर्थात् बढ़ई और परिव्राजक अर्थात् सन्यासी का उदाहरण भी दिया है जो कि हमेशा गति करते हैं। उसी प्रकार यह गौ/पृथीवी भी गति करती है।"
( इस भाषार्थ को लिये हम श्री निशांत आर्य एवं श्री नटराज नचिकेता जी का आभार व्यक्त करते हैं।)
[स्कंद स्वामी का संस्कृत पाठ चित्र में देखें]
यहाँ मंत्र में 'पृश्नि' शब्द भी है , जिसका अर्थ है अंतरिक्ष-
'स्वः , पृश्निः , नाक गौः विष्टपः नभः इति षट्सु साधारणनामसु पृश्निरित्यन्तरिक्षस्य नामोक्तम् (निरुक्त २/१३)।'
स्वः,पृश्नि, नाक, गौ, विष्टप, नभ ये छह नाम अंतरिक्ष के हैं।'
यहाँ मंत्रोक्त स्वः शब्द सूर्य पर लगेगा-
"स्वः शब्देन सूर्य"(निघंटु १/४/१)।
स्वरादित्यो भवति॥(निरुक्त २/१४)
'स्वः आदित्य=सूर्य है।'
अतः यह पूरा मंत्र अंतरिक्षस्थ सूर्य और पृथ्वी पर घटेगा , नाकि महीधर के अनुसार चौपाया गौमाता पर!
बाकी पृथ्वी को भी अग्नि ब्राह्मणग्रंथों में कहा गया है। मंत्र का देवता यानी प्रतिपाद्य विषय अग्नि है, जोकि पृथ्वी बन सकती है-
अयं वै (पृथिवी) लोकोsग्निः। (शतपथब्राह्मण १४/९/१/१४)
इयं (पृथिवी) वाsग्निः। ( शतपथब्राह्मण ७/३/१/२२)
यहां पर पृथ्वी को अग्नि कहा गया है। निरुक्तानुसार अग्नि का अर्थ है- 'अग्नि अग्रणीर्भवति'(निरुक्त ७/१४/४) = 'अग्नि यानी जो आगे-आगे बढ़ता है।' यह गुण पृथ्वी व सूर्य पर लागू हो सकती है, क्योंकि पृथ्वी सूर्य के व सूर्य आकाशगंगा के केंद्र (गैलेटिक सेंटर) के चक्कर लगाता है।
अतः अग्नि शब्द गौ रूप पृथ्वी के लिये मंत्र का देवता बन सकता है।निरुक्त के इस वचन से भी पृथ्वी के घूमने का वर्णन है। इसी विशेषता से पृथ्वी का नाम गौ है।
यदि आपके अनुसार मानें, कि मंत्र का देवता अग्नि होने से उसकी स्तुति होगी, तो ऐसा ही वर्णन मंत्र में है। पृथ्वी रूप अग्नि की स्तुति यानी गुणकथन है।
इस मंत्र में शतपथ ब्राह्मण भी पृथ्वी के घूमने का अर्थ करता है। वैसे ब्राह्मणग्रंथों की शैली गूढ़ होती है।उनमें कई तरह की आख्यायिका, अलंकार आदि होते हैं। हम केवल शतपथ के पाठ का शब्दार्थ ही देते हैं, और उसके कुछेक शब्दों का अर्थ खोलकर लिखते हैं-
अथ सर्पराज्ञ्या ऋग्भिरुपतिष्ठते । आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरःपितरं च प्रयन्त्स्वः अन्तश्चरति रोचनास्य प्राणादपानती व्यख्यन्महिषो दिवम्त्रिंशद्धाम विराजति वाक्पतङ्गाय धीयते प्रति वस्तोरह द्युभिरिति तद्यदेवास्यात्र सम्भारैर्वा नक्षत्रैर्वर्तुभिर्वाधानेन वानाप्तं भवति तदेवास्यैतेन सर्वमाप्तं भवति तस्मात्सर्पराज्ञ्या ऋग्भिरुपतिष्ठ।।
तदाहुः । न सर्पराज्ञ्या ऋग्भिरुपतिष्ठेतेतीयं वै पृथिवी सर्पराज्ञी स यदेवास्यामाधत्ते तत्सर्वान् कामानाप्नोति तस्मान्न सर्पराज्ञ्या ऋग्भिरुपतिष्ठेतेति - (शतपथ२/१/४/२९,३०)
'इस मंत्र की ऋषिका सर्पराज्ञी है।'यह पृश्नि गो(पृश्नि=गौ का अर्थ अंतरिक्ष है, आगे प्रमाण देंगे)आई और मा के सामने खड़ी हो गई।और पिता के आगे स्वर्गलोक को हुई।इसके प्राण से सांस लेते चमकने वाले अंतरिक्ष में(द्यौ) के बीच में चलती है(अर्थात् गौ=पृथ्वी द्यावापृथिवा के मध्य=अंतरिक्ष में भ्रमण करती है।)।इस सर्पराज्ञी वाली ऋचा को इसीलिये पढ़ता है कि जिस जिस वस्तु की प्राप्ति उसको यज्ञ की तैयारी से,या नक्षत्रों से,या ऋतुओं से,या अग्न्याधान से न हो सकी वो इससे हो जाती है।।
कुछ लोगों का कहना है कि इस ऋचा को खड़े खड़े पढ़ने की जरूरत नहीं है क्योंकि पृथ्वी ही सर्पराज्ञी कद्रू है।जब पृथ्वी में अग्न्याधान किया जाता है तब ये सब कामनाओं को पूर्ण करती है।।"
( दृष्टव्य:- शतपथब्राह्मण, पं गंगाप्रसाद उपाध्याकृत भाष्य)
इससे यह सिद्ध हुआ कि शतपथकार के अनुसार भी इस मंत्र में पृथ्वी का वर्णन है, साथ में उसके घूमने का भी।
महर्षि दयानंद भी देवता के विरुद्ध अर्थ नहीं करते। इस मंत्र में भले ही पृथ्वी की बात हो, पर अग्नि के अनुसार ही ऋषि ने भाष्य किया है। क्योंकि पृथ्वी का घूमना अग्नि के निमित्त ही होता है और पृथ्वी उसी अग्नि के गोले का एक टुकड़ा है इसलिये आदित्य(सूर्य) को पृथ्वी का पिता भी कहा है। महीधर ने लिखा है-"द्युलोकभूयोर्मातापितृत्वमंत्रापि श्रूयते।'द्यौः पिता पृथिवी 'माता इति।"(यजु.३/६ पर महीधर भाष्य)
साफ तौर से ये हमारा समर्थन है ।
साथ ही, महर्षि दयानंद ने कहा है:-
'अब अग्नि के निमित्त से पृथिवी का भ्रमण होता है,इस विषय में अगले मंत्र में प्रकाशित किया है।'- (ऋषि दयानंद कृत यजुर्वेद भाष्य ३/६ की भूमिका।)
अब यहां पर 'अग्नि' शब्द है।वेदों में अग्नि शब्द बहुत व्यापक अर्थों में आया है। आपको आश्चर्य होगा कि सूर्य को द्युलोक का 'अग्नि' कहा गया है-
दि॒वस्परि॑ प्रथ॒मं ज॑ज्ञे अ॒ग्निर॒स्मद्द्वि॒तीयं॒ परि॑ जा॒तवे॑दाः ।
तृ॒तीय॑म॒प्सु नृ॒मणा॒ अज॑स्र॒मिंधा॑न एनं जरते स्वा॒धीः ॥
अग्निः “प्रथमं पूर्वं “दिवः द्युलोकस्य “परि उपरि आदित्यात्मना “जज्ञे जातः । “
( ऋग्वेद १०/४५/१ व सायणभाष्य)
इस मंत्रार्थ में आर्यविद्वान पं ब्रह्ममुनि जी व सायणभाष्य में अधिक अंतर नहीं है-
(अग्निः-प्रथमं दिवः-परि जज्ञे) भौतिक अग्नि पदार्थ प्रथम द्युलोक में प्रकट हुआ सूर्यरूप में (जातवेदाः-द्वितीयम्-अस्मत् परि) दूसरा जातवेद नाम से पार्थिव अग्नि हमारी ओर अर्थात् पृथिवी पर प्रकट हुआ इत्यादि॥
भावार्थ-परमात्मा ने प्रथम द्युलोक में सूर्य अग्नि को उत्पन्न किया, दूसरे पृथिवी पर अग्नि को उत्पन्न किया, तीसरे अन्तरिक्ष में विद्युदग्नि को उत्पन्न किया। इस प्रकार मनुष्य को इन अग्नियों को देखकर परमात्मा का मनन करते हुए, जरापर्यन्त इनसे लाभ लेते हुए परमात्मा की स्तुति करनी चाहिए ॥१॥
( ऋग्वेद १०/४१/१ पं ब्रह्ममुनि कृत भाष्य)
यहां स्पष्ट हो गया हौ कि अग्नि शब्द सूर्य के लिये भी आया है।ओर मंत्र पृथ्वी, अंतरिक्ष और सूर्य का वर्णन ही है। अब अग्नि का तात्पर्य पृथ्वी से लो, सूर्य से लो या दोनों से, दोष नहीं आता।अतः स्वामीदयानंद का अर्थ देवता के अनुकूल है।
इसी तरह शतपथब्राह्मण भी उन्हीं का समर्थन करता है।
आपत्ति-२- 'आक्रमण' शब्द का तात्पर्य हमला होगा, बढ़ती है,चढ़ती है आदि नहीं
उत्तर- यह आपके संस्कृत के अल्पज्ञान का परिचायक है।
आक्रम का अर्थ कोशों में यों है-
शब्दसागर:-
आक्रम¦ m. (-मः)
1. Going over or beyond.
2. Surpassinreading over or upon.
4. Overleading.
आप्टे:-
आक्रमः [ākramḥ] मणम् [maṇam], मणम् 1 Coming near, approching.
Seizing, taking, covering, occupying.
A step for ascending; केनाक्रमेण यजमानः स्वर्गं लोकमाक्रमते Bṛi. Up.3.1.6.
Monier-Williams सम्पाद्यताम्
आक्रम/ आ-क्रम m. approaching , attaining
हमने अज्ञात-खंडन लेख में अन्य कोशों को भी उद्धृत किया था।पर फिलहाल ये दो प्रमाण काफी हैं। अतः आक्रमण का अर्थ घूमना भी बन सकता है।
( पाठकगण खुद देखेंगे कि आगे इनके दादागुरु अज्ञात जी व इनके चाचा महीधर जी 'आक्रमण' का अर्थ'हमला' न करके 'गमनार्थक' ही करेंगे। विरोध में ये लोग इतने अंधे हो चुके हैं कि अपने लेख में परस्पर विरोधी कथन कर देते हैं।सही कहा है किसी ने, झूठे की स्मरण शक्ति नहीं होती।)
आपत्ति-३- महीधर ने इस मंत्र में गाय का उल्लेख किया है-
उत्तर- पाठकों! अब तक हम यह सिद्ध कर चुके हैं कि निरुक्त, निघंटु, शतपथ व मंत्र के देवता के अनुसार महर्षि दयानंद का भाष्य सही है। सबसे बड़ी बात, सनातन व्याख्यान शतपथ में भी उनका ही समर्थन है।अब एक मंत्र के आधिदैविक, आधिभौतिक व आध्यात्मिक स्तर पर कई अर्थ हो सकते हैं।अब आप कहें कि महीधर ने फलाँ-फलाँ अर्थ किया है और ऋषि ने दूसरा, तो इससे महीधर सही और ऋषि गलत नहीं हो जाते। आपको यह बताना था कि ऋषि ने किन पदों का अर्थ गलत किया है, सो वो योग्यता आपको सात जन्मों में नहीं मिल सकती। महोदय! महीधर एक मंत्र के दो-दो , तीन-तीन अर्थ स्वयं करता है।तो उनमें से पहला सही और बाकी दो गलत नहीं कहे जा सकते। अतः ऋषि का भाष्य यों ही गलत नहीं हो जाता।
फिर भी, महीधर का भाष्य अशुद्ध है।हम महीधर भाष्य, अज्ञातजी द्वारा दिया उसका भाषानुवाद तथा अपनी समीक्षा नीचे देते हैं। अब आते हैं सुरेंद्रकुमार जी के दिये हुये उवट और महीधर के भाष्य पर। उव्वट का भाष्य संक्षेप में है। महीधर ने उस के अर्थ को खोला है इसलिये पहले महीधर भाष्य का मूलपाठ लिखते हैं और बाद में आपका अर्थ देते हैं:-
'यं दृश्यमानोsग्निः आ अक्रमीत् सर्वतः क्रमणं पादविक्षेपं कृतवान्।किं भूतोsग्निः।गच्छतीति गौः यज्ञनिष्पत्तये तत्तद्यजमानगृहेषु गंता। 'गमेर्डोप्रत्ययः।'(उणादि.३/६६)।तथा पृश्निः चित्रवर्णः। लोहितशुक्लादिबहुविधज्वालोपेतः।
आक्रमणमेवाह।पुरः प्राच्यां दिशि मातरं पृथिवीमसदत् आहवनीयरूपेण प्राप्तवान्।तथा स्वःप्रयन् आदित्यरूपेण स्वर्गे संचरन् पितरं च द्युलोकमपि असदत्प्राप्तवान।स्वःशब्देन सूर्य(निघंटु १/४/२)।द्युलोकभूयोर्मातापितृत्वमंत्रापि श्रूयते।'द्यौः पिता पृथिवी 'माता इति।।(महीधरभाष्य यजु.३/६)।।'
पाठकगण! ध्यान से पढ़िये। महीधर की संस्कृत से ही पृथ्वी का भ्रमण आगे सिद्ध करेंगे! पर पहले इनका दिया हिंदी अर्थ दे दें जिनको ये महीधर के नाम से दे रहे हैं। इसे पढ़िये और हमारी समीक्षा का आनंद लीजिये:-
"इस यज्ञसिद्धि के अर्थ यजमान के घर आने जाने वाले श्वेतरक्तादि बहुप्रकार की ज्वालाओं से युक्त अग्नि ने सब ओर से आहवनीय ,गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि के स्थानों में आक्रमण किया। पूर्वदिशा में पृथ्वी को प्राप्त किया और सूर्य रूप होकर स्वर्ग में चलते अग्नि ने स्वर्गलोक को प्राप्त किया।"
- महीधर और उव्वट का भाष्य यजु/३/६ पर।
१:- ऊपर आपने कहा था कि 'आक्रमण' का अर्थ गमनार्थक न होकर 'हमला'होगा। अब इस हिंदी अर्थ में ही "आक्रमण करती है" क्या यहां पर 'हमला'अर्थ लिया जा सकता है? कदापि नहीं। यहां पर गमनार्थक अर्थ ही संगत है। महीधर ने भी आ आक्रमीत,प्राप्तवान्,गंता,गच्छति आदि अर्थ गमनार्थक ही किये हैं। आपके अर्थ में आक्रमण का अर्थ-"आने जाने वाले, प्राप्त होने,अतिक्रमण करने"आदि अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। फिर आप किस मुंह से आक्षेप करते हैं कि ऋषि ने 'आक्रमण' का गमनार्थक अर्थ गलत किया है?आप स्वयं ही वदतो व्याघात करके निग्रहस्थान में आकर पराजित हो चुके हैं।
२:- महीधर के अनुसार अर्थ किया है:-
(पृश्निः चित्रवर्णः। लोहितशुक्लादिबहुविधज्वालोपेतः।
आक्रमणमेवाह।)-श्वेतरक्तादि बहुप्रकार की ज्वालाओं से युक्त अग्नि।- जरा बताइये पृश्नि का अर्थ 'अग्नि' के संदर्भ में किस प्रमाण से किया? स्वामीजी ने निरुक्त का प्रमाण देकर सिद्ध किया है कि 'पृश्नि'का अर्थ अंतरिक्ष ले सकते है-
'स्वः , पृश्निः , नाक गौः विष्टपः नभः इति षट्सु साधारणनामसु पृश्निरित्यन्तरिक्षस्य नामोक्तम् (निरुक्त २/१३)।'
३:- पितरं का अर्थ आपने स्वर्ग किस आधार पर किया? स्वामीजी ने 'स्वः शब्देनादितत्यस्य।' किया है यानी आदित्य पृथ्वी का पितृवत् ये अर्थ हो सकता है पर स्वर्ग अर्थ नहीं हो सकता। महीधर के लेख ही स्वामीदयानंद का समर्थन होता है-"स्वः शब्देन सूर्य"(निघंटु १/४/१)।
स्वामीजी ने 'आदित्य, सूर्य' को पृथ्वी का पितावत् लिखा है:-
'स्वः शब्देनादित्यस्य ग्रहणात पितुर्विशेषणत्वादादित्योsस्याः पितृवदिति निश्चीयते।' और:- स्वरादित्यो भवति॥
-निरु॰ अ॰ २। खं॰ १४।।
४:- 'मातरम्' का अर्थ पृथ्वी किया है। भला बताइये कि क्या 'अग्नि' की मां पृथ्वी होती है? 'वायोरग्निः' (तैत्तिरीयोपनिषद २/१/१)अग्नि की मां वायु हो सकती है, पृथ्वी नहीं।
स्वामीजी ने जल अर्थ किया है, देखिये उनका दिया प्रमाण:-
'गच्छति प्रतिक्षणं भ्रमति या सा गौः पृथिवी। अद्भ्यः पृथिवीति तैत्तिरीयोपनिषदि।'( तैत्तिरीयोपनिषद २/१/१)
अतः स्वामीदयानंद जी का दिया अर्थ निरुक्त,उपनिषद,ब्राह्मण आदि के कारण सत्य तथा आपका दिया महीधर भाष्य अशुद्धियों से भरा है।
क्या वादी में सामर्थ्य है कि महीधर द्वारा की गई अशुद्धियों को सही साबित कर सके और महर्षि दयानंद के भाष्य को झुठला सके?
निष्कर्ष- हमने बल पूर्वक निरुक्त, निघंटु, उपनिषद,शतपथ आदि ग्रंथों से सिद्ध कर दिया है कि यजुर्वेद ३/६ पर महर्षि दयानंद का भाष्य, जो भू-भ्रमण का विज्ञान बताता है,वो सोलह आने सत्य है।साथ ही, हमने महीधर भाष्य के दोष भी दिखाये हैं और वादी की आपत्तियों का भी जवाब दिया है।
अतः महीधर भाष्य दोषयुक्त है, व महर्षि दयानंद का भाष्य वेद,देवता,ब्राह्मणग्रंथ, निरुक्त आदि के अनुकूल सत्य है। इससे स्पष्ट है कि वेदों में भू-भ्रमण का उल्लेख है।
धन्यवाद ।
समाप्त।
।ओ३म्।
संदर्भ ग्रंथ एवं पुस्तकों का स्रोत-
१- क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदूधर्म- डॉ सुरेंद्रकुमार शर्मा 'अज्ञात'(विश्व बुक्स प्रकाशन)
२- ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका- गूगल एप्प
३- यजुर्वेद भाषाभाष्य- onlineved.com से
४- निरुक्त व निघंटु- मूल- विकिस्रोतः से।
५- शतपथब्राह्मण- अनु. पं गंगाप्रसादजी उपाध्याय
६- महीधर भाष्य- प्र.चौखंबा संस्कृत सीरीज(आर्काइव पर भी उपलब्ध)
७- पौराणिक पोल प्रकाश- पं मनसाराम जी 'वैदिक तोप'(गोविंदराम हासानंद प्रकाशन)
८-निरुक्त स्कंद-महेश्वर टीका- (अ.२-६)सं.लक्ष्मण सरूप, एम.ए , प्रकाशक-युनिवर्सिटी ऑफ पंजाब, संस्करण-१९३१(आर्काइव पर भी उपलब्ध)
९- आप्टेकोश एवं शब्दसागरकोश- विकिशब्दकोशः से।
१०- ऋग्वेद सायणभाष्य- (तिलक महाराष्ट्र युनि. वैदिक संशोधक मंडल, आर्काइव में भी उपलब्ध-विकिस्रोतः से
११- ऋग्वेद पं ब्रह्ममुनि भाष्य- vedkosh साइट से।
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