top of page
Search

वर्तमान धातुपाठ सायण के द्वारा निर्धारीत और महर्षि दयानंद के निर्वचन में भूल ढूंढने वाले को उत्तर।

  • Writer: Aryavart Regenerator
    Aryavart Regenerator
  • Jul 8, 2020
  • 3 min read

-निशांत आर्य ।




महर्षि दयानंद सरस्वती ने ईश्वर का एक नाम निराकार कहा है इसलिए निराकार का निर्वचन इस प्रकार किया है- निर् और आङ्पूर्वक (डुकृञ् करणे) इस धातु से ‘निराकार’ शब्द सिद्ध होता है। ‘निर्गत आकारात्स निराकारः’ जिस का आकार कोई भी नहीं और न कभी शरीर-धारण करता है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘निराकार’ है।


सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम संस्करण में निराकार का निर्वचन था- निर्गत आकारो यस्मात् स निरकारः


कुछ लोग महर्षि दयानंद के निर्वचनों को व्याकरण के दृष्टि से अशुद्ध मानते है, जो लोग ऐसा विचार रखते है उन्हें जानना चाहिए कि ऋषि दयानंद जी का व्याकरणविषयक पांडित्य अद्भुत वा अपूर्व था आजकल के वैयाकरणम्मन्य उनके समक्ष क्या ठहर पाएंगे? कहाँ एक ऋषि और कहां एक साधारण वैयाकरण। इसकी पुष्टि हम व्याकरणशास्त्र के अधिकृत विद्वान महामहोपाध्याय पंडित श्री युधिष्ठिर मीमांसक जी के शब्दों में करना चाहते है। वे लिखते है - " ऋषि दयानंद का एक विशिष्ट वचन है- डुकृञ् करण इत्यस्य भ्वादिगणान्तर्गतपाठात् शब्विकरणोत्र गृह्यते तनादिभिः सह पाठाद् उविकरणोंपि । यजुर्वेद ३,५८


अर्थात- 'डुकृञ् करणे' इस धातु के मध्य पाठ होने से शब्विकरणवाला माना जाता है और तनादियों के पाठ होने से उविकरणवाला भी, अर्थात 'करति' और 'करोति' दोनों प्रयोग साधु हैं।


आजकल पाणिनीय धातु का जो स्वरूप पठन पाठन में जो प्रचलित है उसके अनुसार "कृञ्" का भ्वादि में पाठ नही है, तनादि में है। महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने इस से सर्वथा उल्टी स्थिति बताई है। उनके अनुसार "कृञ्" का भ्वादि में पाठ है तनादि में नही । करोति में उविकरण 'तनादिकृञ्भ्यः उः (३,१,७२ ) सूत्र में तनादि के साथ 'कृञ्' का पाठ होने से होता है, न कि तनादिगण में पाठ होने से।


अब हम स्वामी दयानंद जी के पाठ की विवेचना करते है।साधारणतया देखने से तो यही विदित होता है कि दयानंद जी का लेख व्याकरण शास्त्र के विरुद्ध है, किन्तु अत्यंत गहराई से इसकी मीमांसा करने से विदित होता है कि दयानंद जी का लेख ही सत्य है। सो कैसे? यह निम्न प्रकार से प्रमाणित होता है-


(क) भ्वादिगण में "कृञ्" का पाठ - वर्तमान में जो पाणिनि धातु पाठ उपलब्ध होता है, वह सायण आचार्य के द्वारा निर्धारित पाठ है।


सायणाचार्य ने अपनी धातुवृत्ति में इस पाठ का विस्तार से निर्धारण किया है उसने अनेक धातुओं को, जो पूर्वाचार्यों द्वारा विभिन्न गणों में पठित थी, उसको निकाल दिया, अन्य अपठित पाठों का समावेशन कर दिया (इसके विस्तार के लिए युधिष्ठिर मीमांसक जी द्वारा लिखित संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास पुस्तक भाग 2 देखे ।)

सायण से पहले "कृञ्" धातु भ्वादिमें पठित थी सायण से उसे भ्वादि से हटाया, यह स्वयं उसने धातुवृत्ति तथा ऋग्वेदभाष्य १,८२,१ के व्याख्यान में स्प्ष्ट लिखा है- अस्य महता प्रपंचेन भ्वादित्वं निराकृतम् । सायण से पूर्ववर्ती देव, क्षीरस्वामी, पालयकीर्ति, हेमचंद्र , दशपादिउणादिवृत्तिकार सभी इसका पाठ भ्वादि में स्वीकार करते है, अतः #भगवान्_दयानंद जी का यह लिखना कि "कृञ्" का पाठ भ्वादि में है सर्वथा युक्त है।


अब रह गया कि तनादि में नही है उविकरण तनादि के सहचर्य से होता है । यह लेख भी सर्वथा सत्य है। यदि "कृञ्" का पाठ तनादि में माना होता तो तनादिकृञ्भ्यः उः (३,१,७६) सूत्र में कृञ् का पृथक पाठ क्यो करते? क्योंकि तनादिगण में पाठ करने से उविकरण हो ही जाता है। महाभाष्यकार पतञ्जलि ने इस सूत्र के भाष्य में कृञ् को पृथक क्यो पढ़ा, इस पर पर्याप्त विचार किये हए है परंतु वे इसका कारण नही बता सके प्रतीत होता है पतंजलि के पूर्व ही कृञ् का तनादि में प्रक्षेप हो चुका था इस लिए वे कारण बताने में असमर्थ रहें। यह तो महर्षि दयानंद जी की सूझ है , या उनके गुरुवर विरजानंद की , जिनके द्वारा धातुपाठ के सहस्रों वर्षो भ्रष्ट हुए वास्तविक पाठ की ओर संकेत किया गया है।


श्री स्वामी विरजानंद जी के शिष्य हरिवंश के हाँथ का लिखा हुआ धातुपाठ का एक हस्तलेख विश्वेश्वरानंद शोधसंस्थान होशियार पुर में सुरक्षित है । और उसमें कृ धातु का तनादिगण में पाठ नही है ।


ऐसे महावैयाकरण दंडी स्वामी विरजानंद के शिष्य और स्वयं महावैयाकरण दयानंद सरस्वती के गर्न्थो में व्याकरण सम्बन्धी भूलें ढूंढना सूर्य को दीपक ले कर ढूंढने के समान है । अतः ग्रन्थकार का दोनों निर्वाचन व्याकरण के दृष्टि से शुद्ध है।

 
 
 

Comments


Post: Blog2_Post

Subscribe Form

Thanks for submitting!

Baro(851118),barauni, district-begusarai,State-Bihar!

  • Twitter
  • YouTube

©2020 by Aryavarta Regenerator. Proudly created with Wix.com

bottom of page