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।।सत्यार्थ प्रकाश ।।(प्रथम सं०१९३१, द्वितीय संस्करण १९३९!!

  • Writer: Aryavart Regenerator
    Aryavart Regenerator
  • Jul 8, 2020
  • 5 min read

भाग-१


प्रस्तुति -निशांत आर्य ।


लेखक- महामहोपाध्याय पंडित युधिष्ठिर मीमांसक जी


जगतविख्यात "सत्यार्थ प्रकाश" महर्षि दयानंद सरस्वती की सर्वोत्कृष्ट तथा सार्वजनिक कृति है ।इस ग्रन्थ के २ भाग है पूर्वार्ध और उत्तरार्ध। पूर्वार्ध में दस और उत्तरार्ध में ४ समुल्लास है! प्रथम संस्करण में उत्तरार्ध के अंतिम दो समुल्लास किसी कारण से नहीं छप सके थे।


{प्रथम संस्करण राजा जयकृष्णदास(मुरादाबाद) ने छपवाया था। वे अंग्रेजो के पृष्ठ पोषक एवं चाकरी में थे। राजा की पदवी भी उन्हें अंग्रेज शासकोंसे उस समय प्राप्त हुई थी। उधर राजाजी का मुसलमानों में (सर सैय्यद अहमद खां आदि)से भी विशेष संपर्क था। राजा जी नही चाहते थे कि अंग्रेज व मुसलमान (सर सैय्यद अहमद खां आदि) लोग रूष्ट हो जाए इस कारण महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने जो अंत के 2 समुल्लासों में ईसाई और मुसलमान के धर्म गर्न्थो का खण्डन लिखा था उसे राजाजी ने जब सत्यार्थ प्रकाश के छपने का जिम्मा उठाया था, तो अंत के 2 समुल्लास उक्त कारणों से राजाजी ने छपने के लिए प्रेस में नहीं भेजा था।


राजा जी के परिवार में सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम संस्करण की हस्तलिखित प्रति में दोनो समुल्लास विद्यमान है । इस हस्तलिखित की प्रतिलिपि परोपकारिणी सभा ने सुरक्षित कर के रख ली है ।


इस ग्रन्थ के पूर्वार्ध में प्रधानतया वैदिक धर्म के मुख्य-मुख्य सिंद्धान्तों की विषद व्याख्या है, और उत्तरार्ध में क्रमशः पौराणिक, बौद्ध जैन चार्वाक, ईसाई और मुसलमान सम्प्रदायों के मन्तव्यों की समालोचना है। और अंत में महर्षि ने स्वमंतव्यप्रकाश में वैदिक धर्म के मूलभूत सिद्धान्त संक्षिप्त सूत्र रूप में उल्लेख किया है ।


●प्रथम संस्करण की हस्तलिखित कॉपी में १३वे समुल्लास में मुसलमानी और १४वें में ईसाई मत की आलोचना की गयी थी ।


●प्रथम संस्करण के हस्तलेख में स्वमंतव्यप्रकाश नही है उसके स्थान पर एक विज्ञापन है (जिसे ऋषि दयानंद के पत्र और विज्ञापन ) में प्राकशित कर दिया गया है ।


महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने इस ग्रन्थ की रचना सत्य अर्थों के प्रकाश के लिए ही की थी। अतएव उन्होंने इसका अनवर्थ नाम सत्यार्थ प्रकाश रखा है ।


*-सत्यार्थ प्रकाश की रचना में निमित्त-*


सत्यार्थ प्रकाश जैसे अनुपम ग्रन्थ को लिखवाने का सारा श्रेय राजा जयकृष्णदास जी को है । राजा जी मुरादाबाद के रहनेवाले राणायनीय शाखाध्यायी सामवेदीय ब्राह्मण कुलोत्पन्न थे । जब ज्येष्ठ सम्वत १९३१ (मई सन १८७४ ई०)में महर्षि काशी पधारे, तब राजा जयकृष्णदास वहां के डिप्टी कलेक्टर थे, राजाजी का महर्षि के प्रति अनुराग था राजाजी ने ही महर्षि से निवेदन किया -"भगवन ! आपके उपदेशामृत से वे ही लोग लाभ उठा सकते है जो आपके व्याख्यान सुनते है । जिनका स्वयं आपके मुखारविंद से उपदेश श्रवण करने का सौभाग्य प्राप्त नही होता, वे आपके उपदेशों से वंचित रह जाते है। अतः आप इसे ग्रन्थ रूप में संकलित कर के छपवा देवें तो जनता महान उपकार होवे। इस से आपके उपदेश भी चिरस्थायी हो जाएंगे, और इस से भविष्य में आने वाली भारत संतान भी लाभ उठा सकेंगी।


इस निवेदन के साथ ही राजाजी ने ग्रन्थ के लिखवाने और छपवाने के व्यय का सारा भार अपने ऊपर ले लिया। महर्षि ने राजाजी के युक्ति-युक्त प्रस्ताव को तत्काल ही स्वीकार कर लिया ।


*सत्यार्थ प्रकाश की रचना का प्रारम्भ*


महर्षि अपने स्वभाव अनुसार जिस कार्य को उपयोगी समझ लेते थे, उसको प्रारम्भ करने में कभी विलम्भ नही किया करते थे, अतः राजा जयकृष्णदास के उक्त प्रस्ताव को स्वीकार कर के काशी में प्रथम आषाढ़ बढि १३,सम्वत १९३१(२२ जून १८७४) शुक्रवार के दिन सत्यार्थ प्रकाश को लिखवाने का कार्य प्रारम्भ कर दिया ।


*सत्यार्थ प्रकाश का लिपिकार।*


राजा जी ने सत्यार्थ प्रकाश लिखने के लिए महाराष्ट्रीय प० चंद्रशेखर को नियत कर दिया । अब महर्षि बोलते जाते और लिपिकार पण्डित चंद्रशेखर लिखते जाते थे -(देवेंद्रनाथ संकलित जीवन चरित)


*-सत्यार्थ-प्रकाश के लेखन की समाप्ति-*


सत्यार्थ प्रकाश का लेखन कार्य कब समाप्त हुआ इसका ज्ञान प्रथम संस्करण अथवा महर्षि के उपलब्ध पत्रों से नही होता है । रामलाल कपूर ट्रस्ट लाहौर द्वारा प्राकशित ऋषि दयानंद के पत्र और विज्ञापन संस्करण ३ के भाग१ में पृष्ठ ३५ से ४३ तक एक विज्ञापन छपा है। यह विज्ञापन सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम संस्करण की हस्त लिखित प्रति के चौदवें समुल्लास के अंत में लिखा हुआ है ।


सत्यार्थ प्रकाश प्रथम संस्करण की सम्पूर्ण (१४ समुल्लासों की ) हस्तलिखित प्रति स्वर्गीय राजा जयकृष्णदास के घर में सुरक्षित थी ।


श्रीमती परोपकारिणी सभा के मंत्री ऋषिभक्त श्री बाबू हरविलास जी शारदा ने सम्वत२००४ वि० में बहुत प्रयत्न कर के इस हस्त लिखित की प्रति को मंगवा कर इसकी प्रतिकृति ले ली थी। इसके लिए मंत्रीश्री सभी आर्यो के धन्यवाद के पात्र है । पूर्व निर्दिष्ट विज्ञापन के विषय में "पत्र और विज्ञापन पृष्ठ ४३ के नीचे पंडित भगवदत्त जी ने टिप्पणी संख्या ३ में लिखा है - "यह सारा लेख संवत १९३१ के मध्य अथवा सितंबर १८७४ में लिखा गया होगा ।


यदि श्री पंडित भगवदत्त जी का उक्त लेख ठीक हो, तो मानना पड़ेगा की सत्यार्थप्रकाश जैसे महत्वपूर्ण और बृहत्काय ग्रन्थ की रचना में लगभग साढ़े तीन मास का काल लगा था ।


दयानन्द प्रकाश पृष्ठ२४१के पंचम संस्करण पर लिखा है- सत्यार्थ प्रकाश तो वहां (=बम्बई) जाने के २ मास पूर्व ही लिखकर राजाजयकृष्णदास जी को छपवाने के लिए दे गए थे ।


स्वामी जी महाराज बम्बई २६ अक्टूबर १८७४ को पधारे थे। अतः दयानंदप्रकाशकार के मतानुसार भी सितम्बर १८७४ के अंत तक लेखन समाप्त हो गया था। अतः उनके लेखानुसार सत्यार्थ प्रकाश के लेखन में अधिक साढ़े तीन मास का काल ही लगा था ।


नोट- ऋषि ने ग्रन्थ को काशी में लिखवाना आरम्भ किया था और प्रयाग में समाप्त किया था। पंडितों की देख रेख में मुद्रनमात्र हुआ था ।


*-प्रथम संस्करण के हस्त लेख के विवरण-*


प्रथम संस्करण के हस्तलेखक को मामराज जी ने देखा था मुरादाबाद में! वे अत्यंत ऋषि भक्त थे और ऋषि के शतशः पत्रों के अन्वेषक थे वे स्वर्गीय श्री मामराज जी ने अपने विवरण १९-१०-१९४९ के पत्र में लिखा है -


इस हस्त लेख में दो भाग है । समुल्लास 1-10 प्रथम और 11 से 14 तथा उसके परिशिष्ट पर्यन्त दूसरा।

दोनो की पृष्ठ संख्या पृथक पृथक है । इनका व्योरा इस प्रकार है जो की चित्र में लगा हुआ है अतः चित्र में देख लेवे।


पृष्ठ ४६८―४९५ तक सब मनुष्यों का हिताहित, दिनचर्या, और संस्कृत सनातन विद्या का पठन पाठन के क्रम का वर्णन है ।


इस मत में १३वां समुल्लास मुसलमान-मत की समीक्षा का है, और १४वां ईसाई मत की समीक्षा का। अंत में पृष्ठ ४६८ से ४९५ तक एक विज्ञापन है । जिसमे किञ्चित स्व वृतांत, सब मनुष्यों का हिताहित, दिनचर्या, और संस्कृत सनातन विद्या के पठन पाठन का क्रम वर्णित है।


कुरान-मत की समीक्षा(तेरहवें समुल्लास ) के पृष्ठ १८७,१८८ कुछ फटे हुए है । और पृष्ठ २८८ है ही नही। पृष्ठ ३६६-३६९ तक अधिक फटे हुए है । जिसे मामराज जेड पढ़ते समय गोंद से जोड़ दिया था । आगे पृष्ठ ३७४से ३७७ कॉपी में नही है । सम्भव है वे भाग नष्ट हो गए हों ।


अब प्रथम भाग के पृष्ठ ४४८ तक की सातवी पंक्ति से पृष्ठ ४५९ की 6वीं पंक्ति तक का लेखक भिन्न व्यक्ति है ।



-शेष भाग कल प्राकशित किये जायेंगे ।

 
 
 

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